गोवत्स द्वादशी का आध्यात्मिक महत्व!

वैन (कृतिका खत्री, सनातन संस्था - दिल्ली - 18.10.2025) :: सत्वगुणी, अपने सान्निध्य से दूसरों को पावन करने वाली, अपने दूध से समाज को पुष्ट करने वाली, अपना अंग-प्रत्यंग समाज के लिए अर्पित करने वाली, खेतों में अपने गोबर की खाद द्वारा उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाली, ऐसी गौ सर्वत्र पूजनीय है । हिंदू कृतज्ञतापूर्वक गौ को माता कहते हैं । जहां गौ माता का संरक्षण-संवर्धन होता है, भक्ति भाव से उसका पूजन किया जाता है, वहां व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का उत्कर्ष हुए बिना नहीं रहता। भारतीय संस्कृति में गौ को अत्यंत महत्त्व दिया गया है । वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी दीपावली के आरंभ में आती है । यह गौ माता का सवत्स अर्थात उसके बछड़े के साथ पूजन करने का दिन है । इस वर्ष गोवत्स द्वादशी व्रत 17 अक्टूबर को मनाया जाएगा ।

दीपावली से पहले गोवत्स द्वादशी क्यों मनाई जाती है? - एक पौराणिक कथा में वर्णित है कि समुद्रमंथन से पाँच मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाली गायें (कामधेनु) उत्पन्न हुईं। इन पाँच मनोकामनाओं में एक दिव्य गाय नंदा भी प्रकट हुई थीं। इसी दिव्य गाय नंदा की पूजा के लिए यह व्रत किया जाता है। इस दिन, विवाहित स्त्रियाँ (सौभाग्यवती) केवल एक समय भोजन ग्रहण करके व्रत रखती हैं और सुबह या शाम को, एक सजी हुई गाय और उसके बछड़े की पूजा करती हैं।

व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का उत्थान करने वाली गाय सर्वत्र पूजी जाती है! - जो सत्वगुण से युक्त है, जो अपनी उपस्थिति से दूसरों को पवित्र करती है, जो अपने दूध से समाज का पोषण करती है, जो अपने शरीर का प्रत्येक अंग समाज के लिए अर्पित करती है, जो अपने गोबर से खेतों की उर्वरता बढ़ाती है, ऐसी गाय सर्वत्र पूजी जाती है। हिंदू कृतज्ञतापूर्वक गाय को माता कहते हैं। जहाँ गाय की रक्षा और पालन-पोषण होता है, और भक्तिपूर्वक उसकी पूजा की जाती है, वहाँ व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति होती है। नेपाली संस्कृति में गाय को बहुत महत्व दिया गया है।

सभी देवताओं के तत्व गाय की ओर आकर्षित होते हैं - भगवान कृष्ण को गाय बहुत प्रिय है। भगवान दत्तात्रेय के पास भी एक गाय है। उनके साथ गाय पृथ्वी का प्रतीक है। प्रत्येक सात्विक वस्तु ईश्वर के किसी न किसी तत्व को आकर्षित करती है। लेकिन गाय की विशेषता यह है कि वह सभी देवताओं के तत्वों को आकर्षित करती है। इसीलिए कहा जाता है कि गाय में सभी देवी-देवताओं का वास होता है। गाय से प्राप्त सभी सामग्रियों जैसे दूध, घी, गोबर या गोमूत्र में सभी देवताओं के तत्व समाहित होते हैं।

गोवत्स द्वादशी का आध्यात्मिक महत्व - शक संवत के अनुसार आश्विन कृष्ण द्वादशी और विक्रम संवत के अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी को गोवत्स द्वादशी कहा जाता है। इस दिन व्रत रखा जाता है। गाय सात्विक होती है, इसलिए सभी को गोवत्स द्वादशी के दिन इस पूजा के माध्यम से उसके सात्विक गुणों को ग्रहण करना चाहिए। शक संवत के अनुसार आश्विन कृष्ण द्वादशी और विक्रम संवत के अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी को गोवत्स द्वादशी कहा जाता है।

गोवत्स द्वादशी व्रत के अंतर्गत उपवास - इस व्रत में व्यक्ति एक समय भोजन करके व्रत रखता है। हालाँकि, इस दिन गाय का दूध या उससे बने उत्पाद जैसे दही, घी, मोही और खीर और तेल में पके हुए खाद्य पदार्थ, पकौड़े आदि का सेवन नहीं किया जाता है और न ही तवे पर पका हुआ भोजन किया जाता है। सवत्स गाय की पूजा सुबह या शाम के समय की जाती है। गोवत्स द्वादशी के दिन सुबह या शाम के समय गाय की पूजा करने का वैज्ञानिक आधार - श्री विष्णु के प्रकट रूप की तरंगें सुबह या शाम के समय गाय की ओर अधिक आकर्षित होती हैं। ये तरंगें श्री विष्णु के अव्यक्त रूप की तरंगों को 10 प्रतिशत अधिक तीव्र कर देती हैं। इसलिए गोवत्स द्वादशी के दिन प्रातः या सायंकाल गाय की पूजा करने का विधान है। गाय की पूजा प्रारंभ होने पर सबसे पहले आचमन किया जाता है। फिर, 'मैं इस गाय की पूजा इसलिए करता हूँ कि इस गाय के शरीर पर जितने रोम हैं, उतने वर्षों तक मुझे स्वर्ग का सुख प्राप्त हो।' इस प्रकार संकल्प किया जाता है। अक्षत अर्पित करके आसन दिया जाता है। तत्पश्चात पाद्य, अर्घ्य, स्नान आदि कराया जाता है। वस्त्र अर्पित किए जाते हैं। तत्पश्चात गौ माता को चंदन, हल्दी और कुमकुम अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात आभूषण अर्पित किए जाते हैं। पुष्पों की माला चढ़ाई जाती है। तत्पश्चात गाय का स्पर्श किया जाता है और गाय के प्रत्येक अंग को स्पर्श करके न्यास किया जाता है। गाय की पूजा के बाद बछड़े को चंदन, हल्दी, कुमकुम और पुष्पों की माला अर्पित की जाती है। इसके बाद गाय और बछड़े को धूप के रूप में दो अगरबत्तियाँ दिखाई जाती हैं। फिर दीपदान किया जाता है। दोनों को नैवेद्य अर्पित किया जाता है। फिर गाय की परिक्रमा की जाती है। तुलसी के पत्तों की माला चढ़ाई जाती है और मंत्रपुष्प चढ़ाया जाता है। इसके बाद पुनः अर्घ्य दिया जाता है। अंत में, आचमन के साथ पूजा संपन्न होती है।

पूजा के बाद, गाय की पुनः भक्तिपूर्वक पूजा की जाती है। गाय एक पशु है। यदि भय के कारण या अन्य कारणों से गाय की पूजा न की जा सके, तो पंचोपचार पूजा भी की जा सकती है। इस पूजा के लिए पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती।

गोवत्स द्वादशी से मिलनेवाले लाभ - गोवत्स द्वादशी को गौ पूजन का कृत्य कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । इससे व्यक्ति में लीनता बढती है । फलस्वरूप कुछ क्षण उसका आध्यात्मिक स्तर बढता है । गौपूजन व्यक्ति को चराचर में ईश्वरीय तत्त्व का दर्शन करने की सीख देता है । व्रती सभी सुखोंको प्राप्त करता है ।

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