क्रांतिवीरों के शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद !

वैन (दिल्ली ब्यूरो - 25.02.2022) :: हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ इस क्रांतिकारी संगठन का नेतृत्व स्वीकार करने पर चंद्रशेखर आजाद ने कई युवकों को सशस्त्र क्रांतिकार्य की ओर मोड दिया। उन्होंने ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’, सॉन्डर्स वध’, केंद्रीय सदन में बम फेकना’ जैसी कृतियां कीं। अंग्रेजों के चंगुल में फंसे इस क्रांतिसूर्य ने अंततः स्वयं पर गोली चलाकर अपना ‘आजाद’ नाम सार्थक बनाया।

जन्म : 23 जुलाई 1906, भाबरा ; गौरवशाली बलिदान दिवस : 27 फरवरी 1931

इलाहाबाद चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्य भारत के जाबुआ तहसील में स्थित भाबरा गांव में हुआ । उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी और माता का नाम जगदानी देवी था । बनारस में संस्कृत का अध्ययन करते समय आयु के 14वें वर्ष में ही वे कानूनभंग के आंदोलन में सहभागी हुए। उस समय वे इतने छोटे थे कि जब उन्हें पकडा गया, तब उनके हाथों में हथकड़ी ही नहीं आ रही थी । ब्रिटिश न्यायतंत्र ने इस छोटे बच्चे को 12 कोडे मारने का अमानवीय दंड दिया । इन कोडों से आजाद के मन में क्षोभ और बढा और अहिंसा से उनका विश्वास उठ गया। वे मन से क्रांतिकारी बन गए। काशी में श्री प्रणवेश मुखर्जीं ने उन्हें क्रांति दीक्षा दी। वर्ष 1921 से 1932 तक क्रांतिकारी दल ने जो भी क्रांतिकारी आंदोलन, प्रयोग,योजनाएं बनाईं, उसमें चंद्रशेखर आजाद अग्रणी थे।

सॉन्डर्स की बलि चढाने के पश्चात चंद्रशेखर आजाद वहां से जो निकले, तब से वे अलग-अलग वेश धारण कर उदासी महंत के शिष्य बन गए थे। इसका कारण यह था कि इन महंत जी के पास बहुत धन था । वह आजाद को ही मिलने वाला था; परंतु आजाद को उस मठ में चल रहा मनानुसार आचरण अच्छा नहीं लगा; इसलिए उन्होंने यह कार्य छोड दिया । आगे जाकर वे झांसी में रहने लगे । वहां मोटर चलाना, पिस्तौल से अचूक निशाना लगाना आदि शिक्षा उन्होंने ली।

काकोरी योजना से ही उनके सिर पर फांसी की तलवार लटक रही थी, तब भी वे उस अभियोग में संलिप्त क्रांतिकारियों को छुडाने की योजना में व्यस्त थे; परंतु देखने वालों को ऐसा लगता था कि अब उन्होंने क्रांतिकार्य छोड दिया है।

गांधी-इरविन अनुबंध होने के समय उन्होंने गांधी को यह संदेश भेजा कि आप अपने प्रभाव से भगत सिंह आदि क्रांतिकारियों को छुडाएं, ऐसा होने से हिंदुस्तान की राजनीति में नया मोड आएगा; परंतु गांधी ने इसे अस्वीकार किया । तब भी आजाद ने क्रांतिकारियों को छुडाने के अपने प्रयास जारी रखे । आजाद की यह प्रतिज्ञा थी कि मैं जीवित अवस्था में अंग्रेजों के हाथ नहीं लगूंगा ।’ 27 फरवरी 1931 को अंततः वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में घुस गए। पुलिस अधीक्षक नॉट बावर ने उनके वहां आते ही आजाद पर गोली चलाई । वह उनकी जंघा में लगी; परंतु उसी समय आजाद ने नॉट बावर पर गोली चलाकर उनका हाथ ही नाकाम कर दिया। उसके उपरांत वे रेंगते हुए जामुन के एक पेड की आड में गए और वहां के हिन्दी सिपाहियों से चिल्लाते हुए बोले, हे सिपाही भाईयों, तुम लोग मेरे ऊपर गोलियाँ क्यों बरसा रहे हो? मैं तो तुम्हारी स्वतंत्रता के लिए लड रहा हूं ! कुछ समझो तो सही ! वे अन्य लोगों से कहने लगे,‘इधर मत आओ ! गोलियां चल रही हैं! मारे जाओगे! वन्दे मातरम्! वन्दे मातरम्!

जब उनकी पिस्तौल में अंतिम गोली शेष बची थी, तब उन्होंने पिस्तौल को अपने मस्तक पर टिकाकर उसका चाप दबाया ! उसी क्षण उनके प्राण उस नश्वर शरीर को त्याग कर पंचतत्त्व में विलीन हुए।

नॉट बावर ने कहा, ऐसे अचूक निशानेबाज मैंने बहुत अल्प देखे हैं!

पुलिसकर्मियों ने उनकी निष्प्राण देह में तलवार घोंपकर उनकी मृत्यु की आश्वस्तता की। सरकार ने उनके शव को अल्फ्रेड पार्क में एक डाकू मारा गया, यह दुष्प्रचार करते हुए उसे जला देने का प्रयास किया;परंतु पंडित मालवीय और कमला नेहरू ने इस षड़यंत्र को ध्वस्त किया और उनके अधजले देह का पुनः एक बार हिन्दू परंपरा के अनुसार अंतिमसंस्कार किया। 28 फरवरी को बड़ी संख्या में उनकी अंतिम यात्रा निकालकर एक विराट सभा में सभी नेताओंने उन्हें श्रद्धांजली दी।

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