पटना(सुजाता प्रसाद) - शिक्षा सबसे मूल्यवान उपलब्धि - डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ज्ञान गंगा को प्रवाहित करने वाले एक विद्वान एवं समर्पित शिक्षक थे। आजीवन शिक्षा और उसके कार्यों से जुड़े रहने वाले राधाकृष्णन गुणों से संपन्न एक आदर्श शिक्षक के मिसाल थे। शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके सराहनीय कार्य सदैव याद किए जाते रहेंगे। सर्वश्री डॉ. राधाकृष्णन का यह मंतव्य था कि देश को सही ढंग से दी गई शिक्षा से समाज की अनेक बुराइयों को दूर किया जा सकता है। उनके अनुसार शिक्षक को सिर्फ शिक्षा प्रदान करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि इसके साथ साथ छात्रों के सानिध्य में रहते हुए उनकी हर समस्या और जरूरत को जानने की कोशिश भी करते रहना चाहिए, तभी शिक्षक सम्मान पाने के पात्र हो सकते हैं। सादा जीवन उच्च विचार के पथ पर चलते हुए अपने जीवन में समावेशित करते हुए ही एक शिक्षक समाज को उत्कृष्ट शिक्षा और संस्कार दे पाता है। आपका कहना था कि मानव जाति के विकास क्रम की जीवन यात्रा में शिक्षा सबसे मूल्यवान उपलब्धि है। अतः शिक्षक को अपनी महत्ता व गरिमा के प्रति सचेत होना चाहिए। शिक्षक एक ज्ञान के दीपक की भांति अपने विद्या का प्रकाश फैला सकता है। छात्रों के साथ छात्रों के लिए उनका आह्वान हुआ करता था कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण का हिस्सा बनाएं। डॉ राधाकृष्णन ने हमेशा शिक्षा के चहुंमुखी विकास का सपना देखा था। आज़ व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में उनके सपने और आदर्श विखंडित होते नज़र आ रहे हैं। आज हमें शिक्षक दिवस सिर्फ एक रस्म की तरह न मनाते हुए कुछ संकल्प लेते हुए मनाना चाहिए। जिससे शिक्षक दिवस औपचारिक न बने और पुनः एक स्वस्थ परंपरा की शुरुआत हो सके।
माननीय राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को आंध्रप्रदेश के तिरूत्तानी में बेहद साधारण परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा तिरूत्तानी में तथा आगे की शिक्षा लुथेरियन मिशन स्कूल में हुई। पिताश्री वीरस्वामी से न केवल उन्होंने अक्षरज्ञान प्राप्त किया, बल्कि शास्त्रों का अध्ययन भी किया। युवावस्था में वे स्वामी विवेकानंद जी के प्रवचनों से अत्यंत प्रभावित हुए। आर्थिक परेशानी के कारण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन नहीं कर पाए। कम आयु में ही उनकी शादी हो गई थी। अध्यापन का काम 1909 ई. में तर्कशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से शुरू किया। मैसूर में जब उन्हें सर आशुतोष मुखर्जी के अनुरोध पर कोलकाता विश्वविद्यालय बुलाया गया तब भावुक छात्रों ने उस दिन छलकती आंखों से भावभीनी विदाई दी थी। अमेरिका में भारतीय दर्शन पर उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान के कारण वे सराहना के पात्र बने। फलस्वरूप अपने व्यक्तित्व व विद्वता के प्रभाव से उनसे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में धर्म और नीति शास्त्र के एक पद को सुशोभित करने का आग्रह किया गया, जिस आमंत्रण को उन्होंने स्वीकार कर लिया। पुनः वहां से कोलकाता लौटने के बाद पं. मदन मोहन मालवीय के अनुरोध पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद को संभाला। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। उनकी लिखी पुस्तकें "इंडियन फिलॉसफी" तथा "द हिंदू व्यू ऑफ लाइफ" ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का व्यक्ति बना दिया।
वे ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ हमेशा अपनी आवाज़ बुलंद रखते थे। भारतीय दर्शन के साथ साथ पश्चिमी दर्शन का भी उन्होंने अध्ययन किया। महान शिक्षक होने के साथ-साथ वे एक कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। 1949 में रुस में भारत के राजदूत का पद संभाला। देश के उपराष्ट्रपति के रूप में नियुक्ति सन् 1952 में हुई। तत्पश्चात भारत के राष्ट्रपति के रूप में भी देश की सेवा की जब सन् 1962 में भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में इस गरिमामय पद का भार ग्रहण किया। बाद में उन्होंने राजनीति से भी संन्यास ले लिया। इस प्रकार वे एक महान दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, शिक्षक, शिक्षाशास्त्री, नेता, कुशल राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक भी थे। सन् 1954 में उन्हें "भारत रत्न" देश के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया। उनके प्रशंसकों और शिष्यों के आग्रह पर कि वे उनका जन्मदिन "शिक्षक दिवस" के रूप में मनाना चाहते हैं, राधाकृष्णन उनके नम्र निवेदन को ठुकरा न सके। इस प्रकार 1962 से ही शिक्षक दिवस की गौरवशाली परंपरा चली और आज़ भी उनकी पुण्य स्मृति में हम प्रतिवर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाते हैं। 17 अप्रैल , 1975 को हृदयाघात के कारण वे दिवंगत हो गए।
राष्ट्रपति पद पर आसीन होते हुए भी उन्होंने अपने जन्मदिन को एक शिक्षक दिवस का नाम दिया। इस प्रकार शिक्षक दिवस उनके शिक्षा स्नेह और शिक्षकों के आदर का प्रतीक है।
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