व्यवस्था में सेंध लगाने वाले अगर सक्षम हैं तो व्यवस्था की देखरेख करने वाले सजग क्यों नहीं...???

पटना (सुजाता प्रसाद) - मानवता की मदद के लिए गगनचुंबी इमारतों को बनाने वाले श्रमिक, सड़कों के किनारे ठेले रेहड़ी को थामने वाले हाथ, ढ़ाबे में लोगों और यात्रियों के लिए खाना तैयार करते कामगार आज एक अदद छत से महरूम हैं, उनकी जेबें खाली हैं और वे भूखे-प्यासे हैं। महानगरों के हर ढ़ांचे में जिनके हाथों की छाप है, आज यहां से दूर जाती सड़कों पर इनके पांव अपनी आजमाइश में जुटे हैं। कुछ भी हो जाए अपने घर पहुंचने की चाहत है। मंजिल बड़ी दूर है लेकिन इन्हें अपने पैदल पथ की सवारी पर पूरा भरोसा है और चलते चले जा रहे हैं मजदूर। भूखे प्यासे मीलों मील चलते रहने की चुनौती के आगे खड़ा रहता है इनका अदम्य साहस।

पर किस्मत में लिखे इस दुर्गम सफर में और भी कई बातें हो रही हैं। कोरोना से मरने से पहले भूख से मर जाएंगे, कहने वाले मजबूर मजदूर नियति की क्रूरता के भी शिकार होते रहे, सड़क दुर्घटना में न जाने कितनी जानें गई, कितने घायल अवस्था में पड़े हुए हैं, कितने आपसी हिंसा में अपनी जान गंवा बैठे, कितनों ने अवसाद में आत्महत्या को भी अपना लिया, अपने मां बाप के साथ उनके छोटे बच्चे, थककर भूखे सोए बच्चे, अपने माता-पिता की मौत पर अनाथ हुए बच्चे, गर्भवती महिलाओं की दर्द भरी दास्तान, ऐसी अनेक दर्दनाक कहानियों को कहता ही जा रहा है यह सफ़र।परेशानियां क्या कुछ कम थीं कि मंजिल से पहले ही मृत्यु ने वरण कर लिया।

कोरोना ने बेरोजगार कर दिया, रोजी-रोटी छिन गई। सरकारी इंतजाम चाहे जितने भी किए जाते रहे, लेकिन व्यवस्था में कहीं न कहीं कमी जरूर रही और कैमरों से निकल कर आती तस्वीरें काल के ग्रास की क्रूरतम बानगी बनते रहे। एक तरफ प्रवासी भारतीय लोगों को अपने देश लाने की चुनौती को कारगर रुप से व्यवस्थित किया जा रहा है। लेकिन अपनी विपन्नता में प्रवासी मज़दूर घर जाने के लिए पैदल ही चले जा रहे हैं भूखे प्यासे। अपना देश वाहन विहीन नहीं है, न ही साधनों की कमी है। फिर क्यों ऐसा हो रहा है। व्यवस्था तो इनके लिए भी होनी चाहिए थी। ऐसा लग रहा है जैसे डुगडुगी बजा कर नुक्कड़ नाटक में रूपया बोल रहा है और अमीरी गरीबी का भेदभाव खोल रहा है।

हालांकि इन मजदूरों के लिए विशेष ट्रेनें चलाई जा रही हैं और अब इनकी संख्या भी बढ़ाई गई है। सड़क मार्ग से पैदल चलने वाले मजदूरों को रोककर उनके लिए बसों की व्यवस्था भी की जा रही है। लेकिन मजदूर जानकारी के अभाव में, अपनी जगह से अपने घर जाने के लिए निकल पड़ते हैं और ग़लत सूचना के आधार पर मेडिकल चेकअप के लिए लाइन में खड़े मिल जाते हैं। व्यवस्था में सेंध लगाने वाले अगर सक्षम हैं तो व्यवस्था की देखरेख करने वाले सजग क्यों नहीं? स्थिति भयावह होती जा रही है। अगर देशवासियों द्वारा जनता कर्फ्यू का पालन किया जा सकता है, सम्मान में दीप जलाए जा सकते हैं, लॉकडाउन के अनुशासन का पालन किया जा सकता है तो क्या एक और आह्वाहन पर इन बेबस मजबूरों के लिए इनकी संख्या के एक चौथाई संख्या के भी वोलेंटियर नहीं लगाए जा सकते इनकी सहायता के लिए, मानवता की मदद के लिए।

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