दशहरा अर्थात विजयादशमी संबंधित अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी

दिल्ली ब्यूरो :: ‘दश’ का अर्थ है दस एवं हरा अर्थात हार गया या पराजित हुआ । आश्विन शुक्ल दशमी की तिथि पर दशहरा मनाते हैं । दशहरे के पूर्वके नौ दिनों तक अर्थात नवरात्रिकालमें दसों दिशाएं देवीमांकी शक्तिसे संचारित होती हैं । दशमी की तिथिपर ये दिशाएं देवीमां के नियंत्रण में आ जाती हैं अर्थात दिशाओं पर विजय प्राप्त होती है । इसी कारण इसे ‘दशहरा’ कहते हैं । दशमीके दिन विजयप्राप्ति होनेके कारण इस दिनको ‘विजयादशमी’ के नामसे भी जानते हैं ।

दशहरे का त्यौहार मनाने की पद्धति

इस दिन सीमोल्लंघन, शमीपूजन, अपराजितापूजन एवं शस्त्रपूजन ये चार धार्मिक कृत्य किए जाते हैं ।

सीमोल्लंघन

परंपराके अनुसार ग्रामदेवताको पालकीमें बिठाकर अपराह्न काल अर्थात दिन के तीसरे प्रहर में दोपहर ४ के उपरांत लोग एकत्रित होकर गांव की सीमा के बाहर ईशान्य दिशा की ओर जाते हैं तथा जहां शमी अथवा अश्मंतक वृक्ष होता है, वहां तक जाकर रुक जाते हैं ।

शमीपूजन अथवा अश्मंतक का पूजन

शमीवृक्ष यदि उपलब्ध हो, तो उसका पूजन करते हैं । शमी पापों का शमन (नाश) करती है । शमी के कांटे तांबे के रंग के अर्थात रेडिश होते हैं । शमी राम की स्तुति करती है तथा अर्जुन के बाणों को भी धारण करती है । हे शमी, रामने आपकी पूजा की है । मैं यथाकाल विजययात्रापर निकलूंगा । आप मेरी यात्राको निर्विघ्न एवं सुखमय बनाइए इस प्रकार से प्रार्थना करते हैं ।

अश्मंतकका पूजन

शमीवृक्ष यदि उपलब्ध न हो, तो अश्मंतक वृक्षका पूजन करते हैं । हे अश्मंतक (कचनार) महावृक्ष, तुम महादोषोंका निवारण करनेवाले हो । मुझे मेरे मित्रोंका दर्शन करवाओ और मेरे शत्रुका नाश करो । यह प्रार्थना करने के उपरांत उस वृक्षके नीचे चावल, सुपारी एवं सुवर्ण (पर्यायसे तांबे) की मुद्रा रखते हैं । फिर वृक्षकी परिक्रमा कर उसके मूलके पासकी थोडी मिट्टी एवं उस वृक्षके पत्ते घर लाते हैं ।

अश्मंतकके पत्तोंको सोनेके रूपमें देना

विजयादशमीके दिन अश्मंतकके पत्ते सोनेके रूपमें भगवानको अर्पण करते हैं एवं इष्टमित्रोंको देते हैं । बडे बुजुर्गोंको सोना दें, ऐसा संकेत है ।

विजयादशमीपर अश्मंतकके पत्ते बांटनेका अध्यात्मशास्त्रीय कारण

अश्मंतक वृक्षके मूलमें आकृष्ट निर्गुण तेजकी तरंगें उसके पत्तोंमें आना : ब्रह्मांडकी निर्गुण तेजकी तरंगें पृथ्वीकी ओर आकृष्ट होकर अश्मंतक वृक्षकी जडोंमें आती हैं । कालांतर से यह तेजतत्त्व इस वृक्षके पत्तोंमें भी आ जाता है । ये तेजतरंगें इच्छा-क्रिया शक्तिसे युक्त होती हैं ।

अश्मंतक वृक्षके पत्तोंमें हरितद्रव्य अधिक होना तथा सूर्यकिरणोंके प्रभाव से उनमें तेजतत्त्व सक्रिय होना : अन्य वृक्षोंकी तुलनामें अश्मंतकके पत्तोंमें हरितद्रव्य अधिक मात्रामें होता है । जिस समय इन पत्तोंपर सूर्यकी किरणें पडती हैं, उस समय उनमें स्थित तेजतत्त्व सक्रिय होने लगता है । ये पत्ते सूखनेपर भी इनका मूल रंग बना रहता है । उनमें, अन्य वृक्षोंके तत्तोंकी तुलनामें अधिक परिवर्तन नहीं होता ।

पत्तोंसे निकलनेवाली तेजतरंगें वायुमंडलमें दीर्घकालतक रहती हैं ।

‘सोनेके प्रतीकात्मक रूपमें’ अश्मंतकके पत्तोंका उपयोग करनेका अध्यात्मशास्त्रीय कारण : ‘सोना’ धातुमें तेजतत्त्वके स्पंदन कार्यरत रहते हैं, उसी प्रकार अश्मंतक के पत्तों में भी आंशिक मात्रामें तेजतत्त्व के स्पंदन सक्रिय रहते हैं । इसलिए इन पत्तोंका प्रयोग, ‘सोनेके प्रतीकात्मक रूपमें’ किया जाता है ।

विजयादशमीपर अश्मंतक के पत्तोंका आदान-प्रदान, सज्जनता, समृद्धि एवं संपन्नताको दर्शाता है ।’

कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न आपातकालीन स्थिति एक-दूसरे को अश्मंतक के पत्ते देना संभव न हो, तो ये पत्ते केवल देवता को अर्पण करें ।

अपराजिता पूजन

जिस स्थानपर शमीकी पूजा होती है, उसी स्थानकी भूमिपर अष्टदल बनाकर अपराजिताकी मूर्ति रखते हैं । प्रार्थना करते हैं 'गले में विचित्र हार एवं कमर पर जगमगाती स्वर्ण करधनी अर्थात मेखला धारण करनेवाली, भक्तोंके कल्याणके लिए सदैव तत्पर रहनेवाली, हे अपराजितादेवी मुझे विजयी कीजिए' ।

शस्त्र एवं उपकरणोंका पूजन

दशहरा व्यक्तिमें क्षात्रभावका संवर्धन करता है । शस्त्रोंका पूजन क्षात्रतेज कार्यशील करनेके प्रतीकस्वरूप किया जाता है । इस दिन शस्त्रपूजन कर देवताओं की मारक शक्ति का आवाहन किया जाता है । इस दिन राजा एवं सामंत-सरदार, अपने शस्त्रों-उपकरणों को स्वच्छ कर एवं पंक्ति में रखकर उनकी पूजा करते हैं । पूजनमें रखे शस्त्रोंद्वारा वायुमंडलमें क्षात्रतेजका प्रक्षेपण होकर व्यक्ति का क्षात्रभाव जागृत होता है । इस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनमें नित्य उपयोगमें लाई जानेवाली वस्तुओंका शस्त्रके रूपमें पूजन करता है । किसान एवं कारीगर अपने उपकरणोें एवं शस्त्रोंकी पूजा करते हैं । (कुछ लोग यह शस्त्रपूजा नवमीपर भी करते हैं ।) लेखनी व पुस्तक, विद्यार्थियोंके शस्त्र ही हैं, इसलिए विद्यार्थी उनका पूजन करते हैं । इस पूजनका उद्देश्य यही है कि उन विषय- वस्तुओंमें ईश्वरका रूप देख पाना; अर्थात ईश्वरसे एकरूप होनेका प्रयत्न करना ।

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